keno upanishad

Kena Upanishad is one of the primary Upanishad, which is ninth chapter of Talavakara Brahmana (तलवकार ब्राह्मण) taken from Samveda.

Kena (केन) been referred in the question as “by whom, by whose or by who”. This Upanishad is a dialogue between a Teacher and Student, where the student ask the teacher

केनेषितं पतति प्रेषितं मनः ! केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः । केनेषितां वाचमिमां वदन्ति !

Who direct this mind proceed to its object? At whose will does the prana, the foremost, does its duty? At whose will do men utter speech?

Kena Upanishad – Dialogue between Teacher and Student

Student ask question :

केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥1॥

पदच्छेद  – केन , इषितम् – सत्ता पाकर; प्रेषितम् – प्रेरित होकर; मन: पतति , केन, युक्त , प्रथमः, प्राण; प्रैति
केन , इषिताम् – क्रियाशील , इमाम , वाचम् वदन्ति क: , उ देवः , चक्षुः , श्रोत्रम् , युनक्ति !

By whose desire or motivation this mind falls to achieve objects? By whom attached moves the first ( important ) prana ? By whose impelled this voice are spoken by men ? What god set eye and ear to their workings?

यह मन किसके द्वारा प्रेषित ( प्रेरणा) पाकर अपने विषय मे गिरता है? किससे युक्त होकर प्रथम (प्राण) चलता है ? किसके द्वारा प्रेरित होकर यह वाणी बोलती हैं? कौन देव चक्षु और श्रोत्र को प्रेरित करता है?

Teacher gives the answer :

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद् वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुषश्र्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥2॥

पदच्छेद  – श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद् वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुष:, चक्षु: ,अतिमुच्य धीराः प्रेत्य, अस्मात् , लोकात् , अमृता भवन्ति ॥2॥

That which is hearing of hearing, mind of mind, speech of speech, that too is life of life and sight of sight. Wise by knowing him get liberated from this world and become immortal.

जो श्रोत्र का श्रोत्र, मन का मन है, वाणी का वाणी है, प्राण का प्राण है तथा चक्षु का चक्षु है। ज्ञानी पुरुष उसे जानकर इस लोक से मुक्त हो जाते हैं!

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति नो मनः ।
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ।
अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे ॥3॥

पदच्छेद  – न तत्र चक्षु: गच्छति न वाक् गच्छति नो मनः ।
न विद्म:, न विजानीम: यथा , एतत् , अनुशिष्यात् ।
अन्यत् एव तत् विदितात् अथो अविदितात् अधि ।
इति शुश्रुम पूर्वेषाम् ये न: तत् व्याचचक्षिरे ॥3॥

There ( where Brahman is ) sight doesn’t travels, nor speech, nor the mind. We do not know nor can distinguish how a teacher should should teach his student about that brahman : as It is other than the known and above the unknown. It is so we have heard from previous men, who declared That to us.

वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। इसलिये हम नही जानते किस प्रकार शिष्य को उस ब्रह्म का उपदेश दिया जाये ! वह विदित से अन्य है और अविदित से भी परे है; ऐसा हमने पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस ब्रह्म की व्याख्या हमारे लिये की थी।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥4॥

पदच्छेद – यत् वाचा अनभ्युदितम् येन वाक् अभ्युद्यते ।
तत् एव ब्रह्म त्वं विद्धि न इदम् यत् इदम् उपासते ॥4॥

That which is unexpressed by the word, that by which the word is expressed, know that to be the Brahman and not this which men follow after here.

जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, किन्तु जिससे वाणी अभिव्यक्त होती है, उसे तुम ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोक उपासना करता हैं।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥5॥

पदच्छेद – यत् मनसा न मनुते येन आहु: मन: मतम् ।
तत् एव ब्रह्म त्वं विद्धि न इदम् यत् इदम् उपासते ॥5॥

That which cannot be thought by the mind and by whose motivation mind thinks, know that to be the Brahman and not this which men follow after here.

जो मन से मनन नहीं किया जा सकता है, किन्तु जिसके द्वारा मन स्वयं मनन करता है , उसे ही तुम ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोक उपासना करता हैं।

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥6॥

पदच्छेद – यत् चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति ।
तत् एव ब्रह्म त्वं विद्धि न इदम् यत् इदम् उपासते ॥6॥

That which cannot be seen with the eye and by whose motivation eyes sees, know that to be the Brahman and not this which men follow after here.

जो चक्षु के द्वारा नहीं देखा जा सकता है , किन्तु जिसके चक्षु देखने की क्रिया करता है, उसे ही तुम ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोक उपासना करता हैं।

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥7॥

पदच्छेद  – यत् श्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रम् इदम् श्रुतम् ।
तत् एव ब्रह्म त्वं विद्धि न इदम् यत् इदम् उपासते ॥7॥

That which cannot be heard by ears and by whose motivation ears hears, know that to be the Brahman and not this which men follow after here.

जो श्रोत्र के द्वारा नहीं सुना जा सकता है, किन्तु जिसके सहायता से श्रोत्र क्रिया करता है ! उसे ही तुम ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोक उपासना करता हैं।

यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥8॥

पदच्छेद – यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तत् एव ब्रह्म त्वं विद्धि न इदम् यत् इदम् उपासते ॥8॥

That which cannot be experienced by Prana and whose motivation Prana goes towards its experience, know that to be the Brahman and not this which men follow after here.

जो प्राण के द्वारा विषय नही किया जा सकता, किन्तु जिसके द्वारा प्राण अपने विषयो की ओर जाता है ! उसे ही तुम ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोक उपासना करता हैं।

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