Hiranyagarbha Suktam

Hiranyagarbha Suktam (हिरण्यगर्भ सूक्तम्)

Hiranyagarbha Suktam (हिरण्यगर्भ सूक्तम्) is the 121st hymn of the tenth mandala of the Rigveda.

Hiranyagarbha Suktam declares that Brahman manifested himself in the beginning as the creator of the universe, in the form of a golden egg/womb (हिरण्यगर्भ). This Hiranyagarbha was the material cause for creation of earth and heaven.

Sage Hiranyagarbha is the author of Hiranyagarbha Suktam. The deity of the hymn is the Prajapati.

Hiranyagarbha Suktam – Sanskrit with meaning

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥

इस सृष्टि के निर्माण से पूर्व हिरण्यगर्भ विद्यमान था। वही उत्पन्न जगत् का एकमात्र स्वामी है। वही इस पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष को धारण करता है। उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥१॥

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २ ॥

जो सभी की आत्माओं को उत्पन करनेवाला एवं बल देनेवाला है, जिसकी आज्ञा का पालन सभी देवता करते हैं, जिसकी छाया अमृत है तथा मृत्यु जिनके वश मे है, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ २ ॥

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ३ ॥

जो इस श्वास प्रश्वास लेने वाले तथा आँख झपकाने वाले जगत के प्राणियों का एकमात्र राजा है; दो पैरों और चार पैरों वाले प्राणियों का ईश्वर है, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ ३ ॥

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः ।
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 4 ॥

जिनकी महिमा से हिम आच्छादित प्रर्वत , पृथ्वी , नदियाँ और समुद्र उत्पन हुए है ! ये सभी दिशाएँ जिनकी भुजाएँ हैं, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 4 ॥

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 5॥

जिससे द्युलोक को उग्र किया तथा पृथ्वी को स्थिर किया , स्वर्गलोक और आदित्यलोक को अन्तरिक्ष में स्थापित किया, जिसने आकाश में जल की सृष्टि की, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 5॥

यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 6॥

प्राणियो की रक्षा मे स्थिर जिसको द्युलोक और पृथिवी देखते है , जिसके कारण सूर्य उदित होकर सुशोभित है, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 6॥

आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 7॥

जब जल इस समस्त जगत मे व्याप्त था, तब देवो ने गर्भरुप से प्रजापति को धारण किया और फिर अग्नि के द्वारा इस विश्व को बनाया ! उससे देवताओ का प्राणभूत प्रजापति उत्पन्न हुआ, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 7 ॥

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधानां जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो देवेष्वधिदेव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 8॥

जिसके कारण यज्ञ और जल उत्पन्न हुए। जो देवों में श्रेष्ठ तथा उनका स्वामी है, उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 8॥

मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जनान ।
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 9॥

वह हमें पीड़ित न करे जो इस पृथ्वी का रचयिता है, जो जगत् का धारक है, जिसने समस्त लोको का निर्माण किया तथा जो आह्लादकारक महान् जल का भी उत्पादक है। उसको छोडकर हम किसकी हवि के द्वारा पूजा करे ॥ 9 ॥

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वाजातानि परिता बभूव ।
यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥10॥

हे प्रजापति! आपके अतिरिक्त अन्य कोई इन समस्त वस्तुओ से परिव्याप्त नही है ! जिन वस्तुओं की कामना करके हम आप की उपासना करते हैं वे हमें प्राप्त हों । हम समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हों ॥ 10॥

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!